Thursday, December 3, 2015

कागज़ के टुकड़े

            परीक्षा समाप्त होते ही उसे सम्मुख खड़ी जीवन की कठिन परीक्षा का अनुभव कुछ अधिक ही होने लगा था। घर मे माँ थी जो रिटायर होते ही एकदम से बूढ़ी हो गयी थी और दिल में मुहब्बत जो पूरी तरह जवान हो चुकी थी। एक अवसर दिख रहा था जो राह को आसान कर सकता था। दिल्ली से मामाजी का बुलावा आया था। बोला था कुछ दिन यहाँ आकार फैक्ट्री के काम मे मेरा हाथ बटाओ जब तक मैं कोई नौकरी देखता हूँ तुम्हारे लिए।
            आख़िरी पेपर के बाद बाकी लोग विदा हो गए और वो सुरभि के साथ उसी केबल ब्रिज के ऊपर आ गया जहाँ से नीचे बहती पहाड़ी नदी को देखते देखते दोनों ने दो साल गुज़ार दिये थे। किसी ने किसी को कुछ कहा नहीं या यूँ कहें कहने की आवश्यकता नहीं समझी। लगा जो बात हवा जानती है, पेड़ पौधों को मालूम है और मौसमों ने देखी समझी है उसे क्यूँ कहा जाए।
            जब काफ़ी समय ख़ामोशी मे बीत गया और शाम दस्तक देने लगी तो उसने कहा- "दिल्ली जा रहा हूँ किसी काम से, यदि वो काम बन गया तो तुमसे एक बात कहूँगा।बस दो महीनों की तो बात है।"
            वो बोली 'अभी कह के जाओ जो कहना चाहते हो, क्यूँ दो महीनों को रुकते हो।लंबा समय होता है।अच्छा अब कब मिलेंगे?"
            "30 नवंबर को । मैं यहीं इसी जगह तुम्हारा इंतज़ार करूंगा ।"
            "हूँ ।" इतना ही कह पायी थी सुरभि।
            मामाजी ऐसे तो सगे नहीं थे । माँ के गाँव के भाई थे दूसरी जाति के। फिर भी उन्होने अपना वचन  उतनी ही निष्ठा से निभाया जितना माँ से स्नेह संबंध। नौकरी का इंतजाम हो गया। खुशी खुशी लौट कर वापस शहर आया और शाम को घर पहुँचकर रात भर यही सोचता रहा सुरभि से कैसे कहेगा। पहली बार कहना इतना सरल नहीं होता। कई कई बार अभ्यास किया। शब्दों का चयन, विन्यास और उनको कहने का क्रम हर क्षण बदल जाता था। अंततः कठिन प्रयास रंग लाया और अपने मन का भाव शब्दों मे उतर ही गया। अब समस्या यह थी कि सौ बार मन ही मन कहने के पश्चात भी बोलते समय कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाती थी। संतोष नहीं हुआ तब यह विचार आया कागज़ के टुकड़े पर लिख डाले जिससे किसी विकट स्थिति में उसमे से देख कर सब संभाल ले।
            पता ही नहीं चला उसे कि कब सुबह हुई। नींद टूटी तो बाहर सूरज सर पर चढ़ आया था। जल्दी जल्दी में सुबह के कर्म निबटाये । अच्छे से तैयार हो कर घर से निकल कर मोड़ तक ही पहुंचा  था, तभी उसे याद आया कहीं कुछ भूल रहा है। ओह वह कागज़ वहीं रह गया। जो सोचा था और लिखा था उसे याद करने की भरसक कोशिश की । किन्तु आत्म विश्वास डोलने लगा और घबराहट सी हो गयी। लगभग भागते हुए वापस आकर उसने कागज़ को दो तीन बार पढ़ा और ले कर कोट की ऊपर की ज़ेब में रख लिया । थोड़ी देर में वो उसी पल के ऊपर खड़ा था। आज हवा ज़रा तेज़ थी। धूप खिली हुई थी जिसमें नदी का कल कल करता पानी चमक रहा था। सब कुछ अच्छा था। उसे लगा कुदरत भी साथ है।
            हर बीतता हुआ पल उसकी बेचैनी बढ़ा रहा था। उसने घड़ी देखी 1 घंटा हो चुका था प्रतीक्षा करते करते। कहाँ रह गयी सुरभि? अक्सर वो उसके पहले ही पहुँच जाया करती थी। तभी दूर से कोई छाया उसकी ओर आती हुई दिखाई दी। आ गयी वो उसने सोचा। लेकिन पास आने पर उस लड़की को पहचानने का प्रयत्न व्यर्थ गया। यह सुरभि नहीं थी।
            "नमस्ते। आप सौरभ हैं न?" लड़की ने प्रश्न किया।
         "हाँ, लेकिन तुम कौन? माफ करना मैं यहाँ किसी और का इंतज़ार कर रहा हूँ।" उसने अनमने से उत्तर दिया।
            "आप जिसका इंतज़ार कर रहे हैं उसी ने मुझे भेजा है। मैं सुरभि की रिश्ते की बहन हूँ।"
            "सुरभि ने भेजा? वो खुद क्यूँ नहीं आई?"
            "इसलिए क्योंकि कुछ रस्में निभानी होती हैं। उनके चलते सुरभि दी घर से बाहर नहीं निकल सकती अभी।"
            "कौन हो? जो भी तुम्हारा नाम हो। भगवान के लिए पहेलियाँ बुझाना बंद करो और बताओ बात क्या है।"
            "बात कुछ नहीं निमंत्रण है आपके लिए सुरभि दी का। ये लीजिये ।"
            उसने काँपते हाथों में नीले रंग का लिफ़ाफ़ा लिया और देखा । ऊपर एक दिनाँक थी। 30 नवंबर 1986 और नीचे सुरभि के साथ किसी और का नाम छपा हुआ था।
            "मैं जाऊँ। आप आईएगा ज़रूर। दीदी से कुछ बोलना है ?" लड़की ने कहा ।
            "नहीं" बस इतना ही मुंह के बाहर आ सका ।
            एक मूर्ति पूरा दिन उसी पल पर बैठकर  नीचे नदी में बहते हुए पानी को एकटक देखते हुए जैसे कोई खोई चीज़ तलाश करता रही । शाम घिरने लगी और न जाने क्यों हवायेँ अचानक बहुत ज़ोर से चलने लगी। अचानक मूर्ति में जान आ गयी। बदन मे कंपन होने लगा। कुछ पल बाद  कागज़ के चंद टुकड़े उड़ते दिखे जो उसके वहाँ से जाने के बहुत देर बाद तक हवा में तैरते रहे विद्रोही से, नीचे जाना ही नहीं चाहते थे नदी की धारा में।
            हाँ अंतिम बात, उनका रंग नीला नहीं था। 

Sunday, July 19, 2015

फ़ैसला

आयोजित संवाद था. परिवार के सदस्यों ने उन्हें कुछ देर को एकांत दे दिया. आख़िर ज़िंदगी भर का विषय था. लड़के की आँखें कभी लड़की के झुके हुए चेहरे की ओर जाती थीं और हाथ ज़िंदगी में स्थापित होने की जद्दोजहद मे कम हो रही अपनी केशपंक्ति पर. 

लड़की ने चेहरा उठाया और बड़े प्रयास से कहा मैं अभी ज़िंदगी को समय देना चाहती हूँ. आप समझ रहें हैं ना? लड़के का स्वर सुनाई दिया "हाँ, समझ रहा हूँ". लेकिन लड़की ने देखा लड़के की आँखें उसे नहीं देख रहीं. 


लड़का उस बालों की लट मे उलझ गया था जो लड़की के गालों से गुज़रती हुई गर्दन पर काले तिल से खेल रही थी. फ़ैसला हो चुका था.

Saturday, July 18, 2015

पुनर्जन्म

रीती ने देखा अजय की आँखें उसकी तरफ नहीं थी बल्कि आसमान में स्थिर हो गईं थीं।  चेहरे पर विचित्र उदासी उतर आई थी। "क्या सोच रहे हो तुम?" उसने पूछा। "कुछ नहीं" जवाब मिला। "कुछ तो" उसने दोबारा कोशिश की।
अब अजय भी अपने अन्तर्मन में नहीं रख पाया और बोला- मैं पुनर्जन्म का सोच रहा था।
रीती ने कहा "पुनर्जन्म?"
"हाँ, पुनर्जन्म चाहता हूँ मैं।
"क्या चाहते हो उसमे?"
"तुमको"
"ठीक है, कोई नयी बात करो अजय"
"तुम समझ नहीं रही हो मैं क्या चाहता हूँ। हमेशा की तरह। "
"बताओ फिर क्या चाहते हो उस जन्म में?"
"मैं चाहता हूँ कि अगली बार मैं जब इस दुनिया में आऊँ तो किसी छोटे से खूबसूरत शहर में। "
"आगे बोलो"
"ज्यादा महत्वाकांक्षा न हों। थोड़ा सा पढ़ लूँ। छोटी सी नौकरी उसी शहर में मिल जाए।"
"और? "
"और तुम मिल जाओ"
"उफ, तुम्हारी हर बात मैं मिल जाऊँ पर ही आ जाती है।"
"और तुमको मिलना नहीं मुझसे कभी, न इस जन्म में न किसी जन्म में।"
रीती ने कोई उत्तर नहीं दिया बस अपना हाथ झील पे पानी में डाल कर थोड़ा सा पानी अजय की ओर उछाल दिया।
"बस हो गया तुम्हारा पुनर्जन्म? या कुछ बचा है?"
"रहने दो, तुम्हारा सुनने का मन नहीं।"
"नहीं ऐसा नहीं, लो अब मैं एकदम गंभीर।" उसने मुंह पर बनावटी गंभीरता लाने की बड़ी ज़बरदस्त कोशिश की।
अजय फिर अपनी काल्पनिक दुनिया में चला गया।
"मैं चाहता हूँ इस बार मैं तुमसे सबसे पहले मिलूँ, किसी के भी पहले। कोई उलझन न हो, कोई भ्रम नहीं। मिलें प्रेम हो, माँ पिता हमारे मिलने से ख़ुश हों। शादी हो धूम धाम से। एक प्यारा सा बेटा तुम्हारी शक्ल का और एक बिटिया मेरी जैसी।"
"नहीं। मुझे नाक बहाती छोटी बच्चियाँ नहीं पसंद और तुम्हारी शक्ल की लड़की से शादी कौन करेगा?"
"अच्छा जो तुम चाहो।"
"मैं क्यूँ चाहूँ? पुनर्जन्म तुम्हारा है। हो सकता है मैं किसी और को चाहूँ तब, मेरा कोई हो  "
"हाँ, सब तुम्हारे बस एक मुझको छोड़ कर।"
"ओह तुम्हारा पुनर्जन्म पूरा हो गया? आगे और कुछ नहीं चाहिए?"
"चाहिए बहुत कुछ लेकिन बिना भाग दौड़, बिना उलझनों, बिना परेशानियों की सीधी सादी इस झील सी शांत ठहरी हुई ज़िंदगी- मेरी तुम्हारी।"
तभी पिकनिक मानते स्कूली बच्चों से खचाखच भरी एक नाव थोड़ी दूर से गुज़र गयी और उनके शोर में रीती की बात अजय को सुनाई नहीं दी-
"तुम वाक़ई ज़िंदगी चाहते हो अजय?"

सत्य यही है जीवन के शोर में काम की बात यूं ही  सुनाई नहीं देती। प्रेम सम्मुख होता है दिखाई नहीं देता। हम विश्वास दिलाने और विश्वास करने में इतना विलंब कर बैठते हैं जो कई जन्मों का सानिध्य मिलकर भी भर नहीं सकता।