परीक्षा समाप्त होते ही उसे सम्मुख खड़ी जीवन की कठिन
परीक्षा का अनुभव कुछ अधिक ही होने लगा था। घर मे माँ थी जो रिटायर होते ही एकदम
से बूढ़ी हो गयी थी और दिल में मुहब्बत जो पूरी तरह जवान हो चुकी थी। एक अवसर दिख
रहा था जो राह को आसान कर सकता था। दिल्ली से मामाजी का बुलावा आया था। बोला था कुछ
दिन यहाँ आकार फैक्ट्री के काम मे मेरा हाथ बटाओ जब तक मैं कोई नौकरी देखता हूँ
तुम्हारे लिए।
आख़िरी
पेपर के बाद बाकी लोग विदा हो गए और वो सुरभि के साथ उसी केबल ब्रिज के ऊपर आ गया
जहाँ से नीचे बहती पहाड़ी नदी को देखते देखते दोनों ने दो साल गुज़ार दिये थे। किसी
ने किसी को कुछ कहा नहीं या यूँ कहें कहने की आवश्यकता नहीं समझी। लगा जो बात हवा
जानती है, पेड़ पौधों को मालूम है और मौसमों ने देखी
समझी है उसे क्यूँ कहा जाए।
जब काफ़ी
समय ख़ामोशी मे बीत गया और शाम दस्तक देने लगी तो उसने कहा- "दिल्ली जा रहा
हूँ किसी काम से, यदि
वो काम बन गया तो तुमसे एक बात कहूँगा।बस दो महीनों की तो बात है।"
वो बोली 'अभी कह के जाओ जो कहना चाहते हो, क्यूँ दो महीनों को रुकते हो।लंबा समय होता है।अच्छा अब कब मिलेंगे?"
"30
नवंबर को । मैं यहीं इसी जगह तुम्हारा इंतज़ार करूंगा ।"
"हूँ
।" इतना ही कह पायी थी सुरभि।
मामाजी
ऐसे तो सगे नहीं थे । माँ के गाँव के भाई थे दूसरी जाति के। फिर भी उन्होने अपना
वचन उतनी ही निष्ठा से निभाया जितना माँ
से स्नेह संबंध। नौकरी का इंतजाम हो गया। खुशी खुशी लौट कर वापस शहर आया और शाम को
घर पहुँचकर रात भर यही सोचता रहा सुरभि से कैसे कहेगा। पहली बार कहना इतना सरल
नहीं होता। कई कई बार अभ्यास किया। शब्दों का चयन, विन्यास और उनको कहने का क्रम हर क्षण बदल जाता था। अंततः
कठिन प्रयास रंग लाया और अपने मन का भाव शब्दों मे उतर ही गया। अब समस्या यह थी कि
सौ बार मन ही मन कहने के पश्चात भी बोलते समय कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाती थी। संतोष
नहीं हुआ तब यह विचार आया कागज़ के टुकड़े पर लिख डाले जिससे किसी विकट स्थिति में
उसमे से देख कर सब संभाल ले।
पता ही
नहीं चला उसे कि कब सुबह हुई। नींद टूटी तो बाहर सूरज सर पर चढ़ आया था। जल्दी
जल्दी में सुबह के कर्म निबटाये । अच्छे से तैयार हो कर घर से निकल कर मोड़ तक ही
पहुंचा था, तभी उसे याद आया कहीं कुछ भूल रहा है। ओह वह कागज़ वहीं रह
गया। जो सोचा था और लिखा था उसे याद करने की भरसक कोशिश की । किन्तु आत्म विश्वास
डोलने लगा और घबराहट सी हो गयी। लगभग भागते हुए वापस आकर उसने कागज़ को दो तीन बार
पढ़ा और ले कर कोट की ऊपर की ज़ेब में रख लिया । थोड़ी देर में वो उसी पल के ऊपर खड़ा
था। आज हवा ज़रा तेज़ थी। धूप खिली हुई थी जिसमें नदी का कल कल करता पानी चमक रहा
था। सब कुछ अच्छा था। उसे लगा कुदरत भी साथ है।
हर बीतता
हुआ पल उसकी बेचैनी बढ़ा रहा था। उसने घड़ी देखी 1 घंटा हो चुका था प्रतीक्षा करते
करते। कहाँ रह गयी सुरभि?
अक्सर वो उसके पहले ही पहुँच जाया करती थी। तभी दूर से कोई छाया उसकी ओर आती हुई
दिखाई दी। आ गयी वो उसने सोचा। लेकिन पास आने पर उस लड़की को पहचानने का प्रयत्न
व्यर्थ गया। यह सुरभि नहीं थी।
"नमस्ते।
आप सौरभ हैं न?" लड़की ने
प्रश्न किया।
"हाँ, लेकिन तुम कौन? माफ
करना मैं यहाँ किसी और का इंतज़ार कर रहा हूँ।" उसने अनमने से उत्तर दिया।
"आप
जिसका इंतज़ार कर रहे हैं उसी ने मुझे भेजा है। मैं सुरभि की रिश्ते की बहन
हूँ।"
"सुरभि
ने भेजा? वो खुद क्यूँ नहीं आई?"
"इसलिए
क्योंकि कुछ रस्में निभानी होती हैं। उनके चलते सुरभि दी घर से बाहर नहीं निकल
सकती अभी।"
"कौन
हो? जो भी तुम्हारा नाम हो। भगवान के लिए पहेलियाँ
बुझाना बंद करो और बताओ बात क्या है।"
"बात
कुछ नहीं निमंत्रण है आपके लिए सुरभि दी का। ये लीजिये ।"
उसने काँपते
हाथों में नीले रंग का लिफ़ाफ़ा लिया और देखा । ऊपर एक दिनाँक थी। 30 नवंबर 1986 और
नीचे सुरभि के साथ किसी और का नाम छपा हुआ था।
"मैं
जाऊँ। आप आईएगा ज़रूर। दीदी से कुछ बोलना है ?" लड़की ने कहा ।
"नहीं"
बस इतना ही मुंह के बाहर आ सका ।
एक
मूर्ति पूरा दिन उसी पल पर बैठकर नीचे नदी
में बहते हुए पानी को एकटक देखते हुए जैसे कोई खोई चीज़ तलाश करता रही । शाम घिरने
लगी और न जाने क्यों हवायेँ अचानक बहुत ज़ोर से चलने लगी। अचानक मूर्ति में जान आ
गयी। बदन मे कंपन होने लगा। कुछ पल बाद कागज़ के चंद टुकड़े उड़ते दिखे जो उसके वहाँ से
जाने के बहुत देर बाद तक हवा में तैरते रहे विद्रोही से, नीचे जाना ही नहीं चाहते थे नदी की धारा
में।
हाँ
अंतिम बात, उनका रंग नीला
नहीं था।